
UPSC का नाम ही लोगों में एक उम्मीद जगाता है। ये सिर्फ एक परीक्षा नहीं है, ये उन लोगों का सपना है जो कुछ बड़ा करना चाहते हैं, देश की सेवा करना चाहते हैं, और अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहते हैं। लेकिन इस सपने के रास्ते में एक सवाल बार-बार सामने आता है — “आख़िर इस परीक्षा में बैठने की उम्र सीमा क्या होनी चाहिए?”
शायद बाहर से देखने पर ये सवाल आपको छोटा लग सकता है — लेकिन असल में यही वो रेखा है, जो कई प्रतिभाशाली और मेहनती युवाओं को उनके सपने से दूर कर देती है।
आप ज़रा सोचिए — कोई लड़का जिसने स्नातक (Graduation) पूरी करने के बाद नौकरी करके परिवार चलाया, कुछ साल बाद उसने तय किया कि अब यूपीएससी की तैयारी करनी है। लेकिन जब वो पूरी तरह से जुटता है, तब तक उसकी उम्र सीमा पार होने के करीब होती है।
या कोई लड़की जो शादी और बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाने के बाद अब खुद के लिए कुछ करना चाहती है, लेकिन उम्र की सीमा उसे ये मौका नहीं देती।
ऐसे ना जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो ये बताते हैं कि UPSC की आयु सीमा केवल एक प्रशासनिक शर्त नहीं है, बल्कि यह कई युवाओं के जीवन के संघर्ष से जुड़ा एक बहुत बड़ा मुद्दा है।
पिछले कई सालों से इस विषय पर चर्चा होती रही है। कई छात्रों ने इसके लिए धरने दिए, याचिकाएं डालीं, सोशल मीडिया पर मुहिम चलाईं — लेकिन नतीजा अब तक साफ नहीं है।
सरकार की तरफ से कभी कहा जाता है कि “सेवाओं को युवा और ऊर्जावान बनाना ज़रूरी है,” तो दूसरी ओर छात्र कहते हैं कि “हमें समान अवसर चाहिए, क्योंकि हर किसी की परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं होतीं।”
इस लेख में हम गहराई से जानेंगे कि यूपीएससी की आयु सीमा का इतिहास क्या है, आज इसका स्वरूप कैसा है, और आखिर क्यों ये एक ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसे अब तक ठोस हल नहीं मिल पाया।
क्यों बार-बार ये चर्चा उठती है कि आयु सीमा को घटाया जाए या बढ़ाया जाए?
क्या सच में सभी वर्गों को बराबरी का मौका मिल पा रहा है?
और सबसे जरूरी बात — क्या ये नियम आज के सामाजिक, आर्थिक और मानसिक हालातों से मेल खाते हैं?
1. UPSC की अहमियत और आयु सीमा क्यों ज़रूरी मानी जाती है
अब सवाल उठता है कि UPSC है क्या?
अब ज़रा सोचिए — ऐसे पदों के लिए उम्मीदवार चुनना कितना बड़ी ज़िम्मेदारी है।
UPSC की परीक्षा इसी मकसद से होती है, और ये प्रक्रिया काफी कठोर और गंभीर होती है। इसमें तीन स्टेज होती हैं — प्रारंभिक परीक्षा (Prelims), मुख्य परीक्षा (Mains) और फिर इंटरव्यू (Personality Test)।
हर स्टेज पर उम्मीदवार की ज्ञान, सोच, संवेदनशीलता और नेतृत्व क्षमता को परखा जाता है।
लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में एक बात और अहम होती है — आयु सीमा (Age Limit)।
आख़िर उम्र की सीमा क्यों होती है?
तो इसका सीधा-सा जवाब ये है —
सरकार चाहती है कि युवा, ऊर्जावान और सक्रिय लोग इन सेवाओं में आएं। जब कोई 21-22 साल का नौजवान इन सेवाओं में आता है, तो वो लंबी अवधि तक देश की सेवा कर सकता है, उसमें नया जोश और विचार होते हैं।
सरकारी नौकरियों में अक्सर कहा जाता है कि “ताजगी ज़रूरी है”, ताकि सिस्टम में नई सोच और ऊर्जा बनी रहे। और इसी ताजगी को बनाए रखने के लिए एक उम्र तय कर दी जाती है कि कम से कम कितनी उम्र में परीक्षा दी जा सकती है (21 साल) और अधिकतम कितनी उम्र तक मौका मिलेगा (जैसे 32 साल सामान्य वर्ग के लिए)।
लेकिन क्या ये सीमा सबके लिए समान रूप से फायदेमंद है?
क्योंकि ज़िंदगी हर किसी की एक जैसी नहीं होती। कोई 21 की उम्र में ग्रेजुएशन कर लेता है और तुरंत तैयारी शुरू कर देता है, तो कोई 27 की उम्र में कहीं नौकरी करके, घर चलाकर, फिर सोचता है कि अब UPSC की तैयारी करनी चाहिए।
– कई बार आर्थिक समस्याएं,
– कई बार परिवार की जिम्मेदारियाँ,
– कभी ग्रामीण इलाकों में संसाधनों की कमी,
– तो कभी महिलाओं के लिए सामाजिक बंधन —
इन सब वजहों से बहुत से लोग देर से तैयारी शुरू कर पाते हैं।
आप खुद सोचिए — क्या एक ऐसे छात्र के लिए आयु सीमा 32 साल रखना न्यायसंगत है, जो 5 साल किसी प्राइवेट कंपनी में काम करके घर खर्च चला रहा था और फिर अब अपने देश के लिए कुछ करना चाहता है?
या एक ऐसी महिला के लिए, जिसने शादी के बाद बच्चों की परवरिश की, अब जब वो तैयार है, तब आयु सीमा का नियम उसे रोक देता है।
ऐसे में ये उम्र सीमा ज़रूरत से ज़्यादा सख्त लगने लगती है। और यहीं से शुरू होता है वो विवाद, जो आज भी देशभर में छात्रों के बीच चिंता का विषय है।
की आयु सीमा सुधार: 1876 से लेकर आज तक की कहानी
UPSC का नाम ही लोगों में एक उम्मीद जगाता है। ये सिर्फ एक परीक्षा नहीं है, ये उन लोगों का सपना है जो कुछ बड़ा करना चाहते हैं, देश की सेवा करना चाहते हैं, और अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहते हैं। लेकिन इस सपने के रास्ते में एक सवाल बार-बार सामने आता है — “आख़िर इस परीक्षा में बैठने की उम्र सीमा क्या होनी चाहिए?”
शायद बाहर से देखने पर ये सवाल आपको छोटा लग सकता है — लेकिन असल में यही वो रेखा है, जो कई प्रतिभाशाली और मेहनती युवाओं को उनके सपने से दूर कर देती है।
आप ज़रा सोचिए — कोई लड़का जिसने स्नातक (Graduation) पूरी करने के बाद नौकरी करके परिवार चलाया, कुछ साल बाद उसने तय किया कि अब UPSC की तैयारी करनी है। लेकिन जब वो पूरी तरह से जुटता है, तब तक उसकी उम्र सीमा पार होने के करीब होती है।
या कोई लड़की जो शादी और बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाने के बाद अब खुद के लिए कुछ करना चाहती है, लेकिन उम्र की सीमा उसे ये मौका नहीं देती।
ऐसे ना जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो ये बताते हैं कि UPSC की आयु सीमा केवल एक प्रशासनिक शर्त नहीं है, बल्कि यह कई युवाओं के जीवन के संघर्ष से जुड़ा एक बहुत बड़ा मुद्दा है।
पिछले कई सालों से इस विषय पर चर्चा होती रही है। कई छात्रों ने इसके लिए धरने दिए, याचिकाएं डालीं, सोशल मीडिया पर मुहिम चलाईं — लेकिन नतीजा अब तक साफ नहीं है।
सरकार की तरफ से कभी कहा जाता है कि “सेवाओं को युवा और ऊर्जावान बनाना ज़रूरी है,” तो दूसरी ओर छात्र कहते हैं कि “हमें समान अवसर चाहिए, क्योंकि हर किसी की परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं होतीं।”
इस लेख में हम गहराई से जानेंगे कि UPSC की आयु सीमा का इतिहास क्या है, आज इसका स्वरूप कैसा है, और आखिर क्यों ये एक ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसे अब तक ठोस हल नहीं मिल पाया।
क्यों बार-बार ये चर्चा उठती है कि आयु सीमा को घटाया जाए या बढ़ाया जाए?
क्या सच में सभी वर्गों को बराबरी का मौका मिल पा रहा है?
और सबसे जरूरी बात — क्या UPSC का ये नियम आज के सामाजिक, आर्थिक और मानसिक हालातों से मेल खाते हैं?
हां, ये बहस करीब 150 साल पुरानी है।
साल था 1876। भारत तब ब्रिटिश राज के अधीन था। उस वक्त ‘Indian Civil Services’ (ICS) ही वो सेवा थी, जो प्रशासन की सबसे ऊंची कुर्सी मानी जाती थी। लेकिन अफ़सोस की बात ये थी कि इसमें सिर्फ अंग्रेज़ों का ही दबदबा था।
ब्रिटिश सरकार ने उस समय एक ऐसा नियम बना दिया, जिसने भारतीय युवाओं के सपने तोड़ दिए। उन्होंने सिविल सर्विस परीक्षा की अधिकतम उम्र सीमा केवल 19 साल तय कर दी।
अब ज़रा सोचिए — उस वक्त भारत में न तो अच्छे स्कूल-कॉलेज थे, न कोचिंग संस्थान, और न ही जानकारी के इतने साधन। ऊपर से परीक्षा लंदन में होती थी, मतलब परीक्षा देने के लिए पहले विदेश जाना पड़ता था — और ये सिर्फ अमीर घरों के कुछ चुनिंदा बच्चों के लिए ही संभव था।
इस उम्र सीमा ने एक तरह से भारतीय युवाओं के लिए सिविल सेवाओं का रास्ता लगभग बंद कर दिया था।
भारतीयों ने उठाई आवाज़
दादाभाई नौरोज़ी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं ने बार-बार कहा कि अगर भारतीयों को प्रशासन में हिस्सा देना है, तो उम्र की सीमा को बढ़ाना होगा।
1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनी, तो उसकी शुरुआती मांगों में से एक थी —
“Indian Civil Services में उम्र की सीमा भारतीय छात्रों के अनुसार तय हो।”
लेकिन अंग्रेज़ों ने इस मांग को अनसुना कर दिया।
समय बीतता गया। 1935 में भारत सरकार अधिनियम आया, जिसमें प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में कुछ सुधार किए गए।
ICS के कुछ पद भारतीयों को मिलने लगे, और उम्र सीमा में भी थोड़ा ढील दी गई, लेकिन अभी भी ये पूरी तरह से भारतीयों के हित में नहीं था।
फिर आया आज़ादी का दिन — 15 अगस्त 1947। भारत आज़ाद हुआ और अब देश को खुद तय करना था कि वो कैसे अफसर चुनेगा, कैसे परीक्षा लेगा, और किसे मौका देगा।
1949 में UPSC (Union Public Service Commission) की औपचारिक स्थापना हुई। अब ये संस्था भारत सरकार की स्वतंत्र परीक्षा संस्था बन गई — जो देश के सर्वोच्च अफसरों को चुनेगी।
बेशक, आज परीक्षा भारत में होती है, और अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी व अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध है। उम्र सीमा भी पहले से कुछ बेहतर हुई — जैसे सामान्य वर्ग के लिए अधिकतम 32 साल, ओबीसी के लिए 35 और एससी/एसटी के लिए 37 साल।
लेकिन… एक सवाल अब भी वहीं खड़ा है:
हालात बदले हैं, लेकिन चुनौतियाँ अब भी वही हैं
आज भी बहुत से छात्र ऐसे हैं जो ग्रामीण इलाकों से आते हैं, जहां उन्हें बेहतर शिक्षा पाने में समय लगता है।
बहुत से लोग इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई में कई साल लगाते हैं, और फिर यूपीएससी की ओर रुख करते हैं।
कई महिलाएं शादी और बच्चों की जिम्मेदारी निभाने के बाद इस परीक्षा को देने का हौसला करती हैं।
ऐसे में जब आयु सीमा उन्हें रास्ते से हटा देती है, तो ये सिर्फ एक नंबर नहीं रह जाता — ये उनके सपनों की दीवार बन जाता है।
इतिहास की इसी कहानी से हमें सीख मिलती है कि:
– जब-जब आयु सीमा अनुचित रही है,
– तब-तब समाज के बाकी वर्गों को पीछे छोड़ दिया गया है।
इसलिए आयु सीमा का मुद्दा केवल एक प्रशासनिक नियम नहीं है — ये सामाजिक समानता और अवसर की बात है।
3. आज की स्थिति: क्या वाकई सबको बराबर मौके मिल रहे हैं?
आम तौर पर आयु सीमा क्या है?
कोई भी उम्मीदवार जब तक 21 साल का नहीं हो जाता, तब तक वह परीक्षा नहीं दे सकता।
लेकिन असली मसला अधिकतम उम्र (Maximum Age Limit) को लेकर है।
सामान्य वर्ग (General Category) के उम्मीदवारोंके लिए ये उम्र 32 साल तय की गई है।
अन्य वर्गों को क्या छूट मिलती है?
इसलिए सरकार ने आरक्षित वर्गों को कुछ छूटें दी हैं:
वर्ग अधिकतम आयु सीमा प्रयासों की संख्या
सामान्य (General) 32 वर्ष 6 प्रयास
ओबीसी (OBC) 35 वर्ष 9 प्रयास
SC/ST 37 वर्ष कोई सीमा नहीं
दिव्यांग (PwBD) 42 वर्ष 9 प्रयास (कुछ स्थितियों में)
यह छूट इस विचार पर आधारित है कि सामाजिक, आर्थिक या भौगोलिक असमानता के चलते कुछ वर्गों को मौका पाने में देरी होती है — और उन्हें बराबरी लाने के लिए अतिरिक्त समय और प्रयास मिलना चाहिए।
EWS वर्ग की स्थिति: सवाल अभी भी अधूरा है
अब बात करते हैं EWS यानी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की।
लेकिन यहां एक बड़ा विरोधाभास है —
EWS वर्ग को आरक्षण तो दिया गया है, लेकिन UPSC में उन्हें आयु सीमा या प्रयासों में कोई अतिरिक्त छूट नहीं दी गई है।
मतलब अगर कोई EWS वर्ग का उम्मीदवार है, तो उसके पास उतने ही मौके हैं जितने सामान्य वर्ग के व्यक्ति के पास हैं — 6 प्रयास और 32 साल की उम्र तक।
अब सवाल उठता है:
अगर सरकार मानती है कि ये वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर है, तो फिर उन्हें UPSC में तैयारी के लिए थोड़ा और समय क्यों नहीं दिया जाता?
ये एक नीतिगत असमानता की ओर इशारा करता है, और यही वजह है कि कई छात्र संगठनों और सिविल सेवा के इच्छुक युवाओं ने सरकार से बार-बार मांग की है कि EWS को भी आयु और प्रयास की छूट मिले।
प्रयासों की सीमा: मानसिक दबाव और असमान अवसर
जैसा कि ऊपर बताया:
सामान्य वर्ग: 6 बार
ओबीसी: 9 बार
SC/ST: असीमित प्रयास (age limit तक)
अब सोचिए, UPSC जैसी परीक्षा जिसमें हर साल लाखों लोग बैठते हैं, और पास होने की दर मुश्किल से 0.1% होती है — उसमें अगर किसी को सिर्फ 6 मौके मिलें, तो वो हर प्रयास को जीवन-मरण के युद्ध की तरह देखता है।
– और जब वो समझता है कि कैसे तैयारी करनी है, तब तक उसके आधे मौके खत्म हो चुके होते हैं।
ये मानसिक तनाव, दबाव, और घबराहट को जन्म देता है।
छात्रों की नींद उड़ जाती है, मनोबल टूटता है, और कई बार इस दबाव का असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
फिर सवाल उठता है — क्या ये व्यवस्था वाकई सबके लिए बराबर है?
– क्या UPSC की मौजूदा उम्र और प्रयास नीति उन लोगों के लिए थोड़ी और लचीली नहीं हो सकती जो जीवन की वास्तविक कठिनाइयों से लड़कर इस मुकाम तक पहुंचे हैं?
4. आयु सीमा में सुधार की ज़रूरत क्यों है?
यही वजह है कि अब देशभर में आवाज़ें उठ रही हैं — UPSC की आयु सीमा में सुधार होना चाहिए।
लेकिन सवाल ये है: आखिर इसकी ज़रूरत क्यों है?
चलिए इसे हम तीन हिस्सों में समझते हैं:
1. आर्थिक कारण: हर कोई समान स्थिति में नहीं होता
असल ज़िंदगी की हकीकत:
कोई छात्र ग्रेजुएट होते ही कोचिंग में नहीं जा पाता क्योंकि घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं है।
बहुत सारे उम्मीदवार कोचिंग छोड़िए, किताबें खरीदना भी मुश्किल होता है।
कोई-कोई तो परिवार चलाने के लिए नौकरी करने लगता है, और तैयारी सिर्फ शाम या रात में करता है।
अब जब ऐसे लोग 23 या 25 साल की उम्र में तैयारी शुरू करते हैं, तो 32 की उम्र तक उनके पास बहुत सीमित समय और प्रयास बचते हैं।
क्या ये उनके साथ न्याय है?
2. प्रतिस्पर्धा की असलियत: हर दिन दौड़, हर साल इंतज़ार
हर साल लगभग 10 से 12 लाख छात्र UPSC के लिए आवेदन करते हैं।
प्रारंभिक परीक्षा में लगभग 5 लाख छात्र बैठते हैं।
लेकिन अंतिम चयन सिर्फ 700–1000 उम्मीदवारों का होता है।
यानी सफलता का प्रतिशत सिर्फ 0.1% के आसपास होता है।
अब सोचिए — क्या इतनी कठिन परीक्षा के लिए 6 प्रयास और 32 साल की उम्र काफी है?
तैयारी में लगते हैं कई साल:
पहले एक-दो साल सिर्फ परीक्षा को समझने में चले जाते हैं — पैटर्न, किताबें, रणनीति।
फिर अगले सालों में गंभीर तैयारी होती है।
कभी-कभी कोई साल सिर्फ इंटरव्यू तक पहुंचकर छूट जाता है — और अगली बार फिर से शुरुआत करनी पड़ती है।
कोई शादी कर लेता है,
कोई परिवार के दबाव में नौकरी करने लगता है,
और कुछ लोग उम्र की सीमा पार कर जाते हैं।
इस पूरे सफर में जो एक चीज़ सबसे ज़्यादा परेशान करती है, वो है — टिक टिक करती घड़ी।
3. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी: “न आंदोलन बड़ा, न सरकार गंभीर”
इसका जवाब है: राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी।
क्या कारण हैं?
सरकारें अक्सर इस मुद्दे पर चुप रहती हैं, क्योंकि इससे जुड़े निर्णय लेना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा हो सकता है।
अगर सरकार UPSC की आयु सीमा बढ़ाती है, तो नौकरशाही के कुछ धड़े इसे पसंद नहीं करते — उन्हें लगता है कि उम्रदराज़ लोग प्रशासन में लचीलापन नहीं ला पाएंगे।
वहीं युवा आंदोलन अगर बहुत बड़ा न हो, तो सरकारें उसे नज़रअंदाज़ कर देती हैं।
और इसी चुप्पी में हर साल हजारों छात्रों के सपने चुपचाप दम तोड़ देते हैं।
तो अब सवाल है – क्या बदलाव मुमकिन है?
बिलकुल मुमकिन है।
छात्रों की एकजुट आवाज़,
सोचने वाली नीति,
और समझदार राजनीतिक नेतृत्व,
जो सिर्फ आंकड़ों में नहीं, बल्कि आम छात्रों की ज़िंदगी में सुधार लाना चाहता हो।
5. कोर्ट और राज्य सरकारों का रुख – उम्मीद की किरणें, लेकिन रास्ता अभी बाकी है
आज के दौर में जब लाखों युवा इस परीक्षा के लिए अपनी ज़िंदगी का सबसे कीमती वक्त लगा देते हैं, तब उम्र की सीमा एक बड़ी चिंता बन जाती है। और जब ये चिंता बढ़ती है, तो आवाज़ें उठने लगती हैं – कभी छात्रों की, कभी शिक्षाविदों की, और कई बार अदालतों की भी।
ओडिशा: बदलाव की पहल
इस राज्य ने न सिर्फ अपने राज्य प्रशासनिक सेवा (OAS) की उम्र सीमा बढ़ाई, बल्कि 2023 में इसे सीधे 42 साल तक कर दिया। सोचिए! जहाँ केंद्र सरकार UPSC के लिए अब भी 32 साल की अधिकतम उम्र पर अटकी है, वहीं ओडिशा के युवा 10 साल ज्यादा तक कोशिश कर सकते हैं।
इस फैसले का मकसद बिल्कुल साफ था —
हर उस युवा को मौका देना जो किसी वजह से तैयारी में देर से जुड़ा।
कई बार बच्चे घर की जिम्मेदारियों में फंस जाते हैं, या आर्थिक तौर पर कमज़ोर होते हैं। ऐसे में उम्र की सख्त सीमा उनके सपनों पर ताला लगाती है।
ओडिशा सरकार का ये फैसला न सिर्फ छात्रों के लिए राहत था, बल्कि एक सकारात्मक उदाहरण भी बना।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट: न्याय की आवाज़
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि
EWS (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के उम्मीदवारों को भी उम्र सीमा में वही छूट मिलनी चाहिए जो SC, ST और OBC को दी जाती है।
अब तक UPSC में EWS वर्ग को आरक्षण तो मिलता था, लेकिन उम्र की छूट नहीं।
जिनके पास पैसे नहीं, कोचिंग नहीं, गाइडेंस नहीं – वो अगर सामान्य वर्ग में आते हैं तो उन्हें कोई अतिरिक्त मौका नहीं मिलता।
हाई कोर्ट ने इस भेदभाव को गलत माना और EWS उम्मीदवारों के हक में फैसला सुनाया।
यह फैसला उन हजारों छात्रों के लिए उम्मीद की तरह था जो केवल आर्थिक तंगी की वजह से पीछे छूट जाते हैं।
UPSC और केंद्र सरकार का रुख – बदलाव से हिचक
जैसे ही राज्य सरकारें या अदालतें कोई राहत देने की बात करती हैं, UPSC और केंद्र सरकार अकसर इसका विरोध करती हैं।
उनका तर्क होता है:
“अगर सबको छूट दे दी गई तो प्रतियोगिता असमान हो जाएगी।”
“हम गुणवत्ता बनाए रखना चाहते हैं।”
“बहुत अधिक उम्र में भर्ती करने से सेवा में कम समय मिलता है।”
लेकिन सवाल ये उठता है —
क्या छूट देना असमानता है, या फिर हर किसी को बराबर मौका देना ही असली न्याय है?
क्या एक गरीब बच्चा, जो देर से पढ़ाई शुरू करता है, उसे सिर्फ इसलिए बाहर कर देना चाहिए क्योंकि उसके हालात ठीक नहीं थे?
सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं कई याचिकाएं
कोविड के कारण परीक्षा छूटने वालों को अतिरिक्त प्रयास देने की याचिका
EWS वर्ग को आयु सीमा में छूट की मांग
राज्य सेवाओं में छूट मिलने के बाद UPSC में समानता की मांग
इन याचिकाओं में भावनाएं हैं, तर्क हैं, और लाखों युवाओं की उम्मीदें भी।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक कोई अंतिम फैसला नहीं सुनाया है, लेकिन छात्रों को उम्मीद है कि वहां से न्याय मिलेगा — वो न्याय जो नीति में दिखता नहीं, पर संवैधानिक मूल्य में ज़िंदा है।
तो आखिर रास्ता क्या है?
जहाँ एक तरफ कुछ राज्य और अदालतें छात्रों के पक्ष में सकारात्मक फैसले ले रही हैं, वहीं UPSC और केंद्र सरकार अभी भी पुरानी नीतियों पर टिकी है।
पर इस लड़ाई की खास बात ये है कि यह सिर्फ एक परीक्षा की बात नहीं है,
बल्कि उस सिस्टम की बात है जहाँ हर सपने को उड़ान मिले — चाहे वो किसी गाँव से हो, किसी शहर से या किसी झुग्गी से।
छात्रों की आवाज़ें अब तेज़ हो रही हैं। सोशल मीडिया, जनहित याचिकाएं, और जन आंदोलनों के ज़रिए ये मुद्दा बार-बार उठ रहा है।
क्योंकि अब बात सिर्फ उम्र की नहीं है —
बात है सपनों की उम्र न गिनने की।
6. दूसरे देशों की तुलना – क्या भारत पीछे छूट रहा है?
क्या वहां भी उम्र की एक सख्त दीवार होती है, या वहां के युवाओं को ज़िंदगी के किसी भी मोड़ पर अपने देश की सेवा का मौका मिलता है?
आइए कुछ देशों की ओर नजर डालते हैं और समझते हैं कि भारत की स्थिति उनसे कितनी अलग है – और क्यों हमें अब इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है।
चीन: लचीली उम्र सीमा और व्यापक अवसर
यहां अधिकतम आयु सीमा सामान्य तौर पर 35 साल होती है, लेकिन कुछ पदों और परिस्थितियों में यह और भी ज़्यादा हो सकती है।
चीन की सरकार मानती है कि अगर किसी नागरिक में क्षमता है और वह देश की सेवा करना चाहता है, तो केवल उम्र को उसकी राह में दीवार नहीं बनाना चाहिए।
वहाँ उम्र की बजाय कौशल और योग्यता को ज़्यादा तवज्जो दी जाती है।
इससे ये भी साबित होता है कि चीन जैसे प्रतिस्पर्धी देश में भी उम्र को लेकर ज़्यादा खुलापन है, जबकि भारत जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में युवाओं को सीमाओं में बांध दिया जाता है।
जापान: मेरिट पर फोकस, उम्र नहीं बाधा
वहाँ के समाज में ये माना जाता है कि इंसान अपनी ज़िंदगी के किसी भी मोड़ पर कुछ नया सीख सकता है और बेहतर योगदान दे सकता है।
इसलिए अगर कोई व्यक्ति 35, 38 या 40 साल की उम्र में भी सिविल सेवा में आना चाहता है, तो उसे उस उम्र में भी समान मौका मिल सकता है।
यह लचीलापन लोगों को बार-बार कोशिश करने का हौसला देता है — और यही वजह है कि जापान की नौकरशाही में गहराई और विविधता दोनों मिलती हैं।
अमेरिका: ओपन एंट्री सिस्टम और करियर शिफ्ट की आज़ादी
यहाँ पर चयन योग्यता, अनुभव, और इंटरव्यू या अन्य प्रोसेस के जरिए किया जाता है — न कि उम्र की बंदिशों से।
वहां लोग करियर के किसी भी पड़ाव पर सरकार की सेवा में आ सकते हैं —
चाहे वो 25 साल का ग्रेजुएट हो या 40 साल का अनुभवी प्रोफेशनल।
अमेरिका की व्यवस्था ये मानती है कि किसी इंसान की उम्र नहीं, उसकी सोच, विवेक और नेतृत्व की क्षमता मायने रखती है।
इसलिए वहाँ आपको ऐसे अधिकारी मिलेंगे जिन्होंने पहले किसी और क्षेत्र में काम किया, और फिर 35-40 की उम्र में प्रशासनिक सेवा जॉइन की — बिना किसी उम्र के प्रतिबंध के।
भारत को अब दिशा बदलनी होगी
भारत आज भी एक ऐसी प्रणाली पर चल रहा है जो युवा को समय से पहले ही ‘अयोग्य’ ठहरा देती है।
यहाँ UPSC जैसी परीक्षा में सामान्य वर्ग के लिए अधिकतम उम्र 32 साल और छह प्रयास —
यानी अगर आपने थोड़ा भी देर से तैयारी शुरू की, तो आप पीछे छूट जाते हैं।
वो युवा जो अपने परिवार को संभाल रहा है, या जिसने पहले पढ़ाई के लिए काम किया, या जो ग्रामीण इलाके से देर से निकला —
उनके लिए ये नियम बहुत क्रूर साबित होते हैं।
अब जब दुनिया में ये समझ बन रही है कि इंसान किसी भी उम्र में बदलाव ला सकता है, सीख सकता है, तो भारत को भी अपनी नीतियों को उसी दृष्टि से देखना होगा।
अब वक्त है सोच बदलने का
UPSC की परीक्षा केवल एक परीक्षा नहीं है —
यह लाखों सपनों का वो पुल है जो गांव से मंत्रालय तक का सफर तय करवा सकता है।
तो क्या हम इस पुल पर उम्र की बेड़ियां डाल कर उसे सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित रखना चाहते हैं?
दूसरे देशों का उदाहरण दिखाता है कि अगर नीयत साफ हो और सिस्टम लचीला हो, तो कोई भी नागरिक देश की सेवा में आ सकता है — उम्र चाहे जो भी हो।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में ये सोच बहुत ज़रूरी है।
7. राजनीतिक पेच और बदलाव की राह में रोड़े – क्यों UPSC आयु सीमा का मुद्दा ठहर सा गया है?
तो जवाब बहुत आसान नहीं है।
दरअसल, यह मुद्दा केवल शिक्षा या परीक्षा प्रणाली का नहीं है — यह राजनीति, नौकरशाही और सामाजिक प्राथमिकताओं की एक जटिल परत बन चुका है।
आइए समझते हैं कि क्यों इतना अहम मुद्दा, जो देश के भविष्य से जुड़ा है, आज भी विचारों के गलियारों में गूंजता तो है, लेकिन नीतियों में तब्दील नहीं हो पाता।
1. नौकरशाही को बदलाव रास नहीं आता
UPSC जैसी संस्थाओं पर वरिष्ठ आईएएस अफसरों और पुराने नौकरशाहों का गहरा प्रभाव होता है।
इन लोगों की सोच आमतौर पर ये होती है कि “हमने जिस उम्र में परीक्षा दी, बाकी लोग भी उसी में दें।”
यानी, “हमारे समय में जो UPSC मुश्किलें थीं, वही आज भी होनी चाहिए।”
यह सोच शायद उन्हें “न्यायसंगत” लगती हो, लेकिन वो यह भूल जाते हैं कि समय बदल चुका है।
आज की प्रतियोगिता, समाजिक असमानता, और आर्थिक दबाव वैसा नहीं है जैसा 1980 या 1990 में था।
कई बार यह भी माना जाता है कि अगर UPSC में उम्र सीमा बढ़ाई गई,
तो ज्यादा अनुभवी और तैयार उम्मीदवार आएंगे —
जिससे प्रतियोगिता और बढ़ेगी और स्थायी नौकरशाहों की पकड़ कमज़ोर हो सकती है।
यानी… जड़ सोच और सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की इच्छा,
परिवर्तन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन जाती है।
2. राजनीतिक इच्छाशक्ति की भारी कमी
वहां इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की चुप्पी बहुत कुछ कहती है।
आज़ादी के 75 साल बाद भी किसी भी प्रमुख राजनीतिक पार्टी ने UPSC आयु सीमा को लेकर
कोई ठोस, स्पष्ट और दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई।
चुनावी घोषणापत्रों में यह मुद्दा अक्सर नदारद होता है।
क्योंकि यह ऐसा विषय है जो सीधे-सीधे वोट बैंक को प्रभावित नहीं करता।
नेता जानते हैं कि ये मुद्दा “शोर मचाने लायक” नहीं, क्योंकि इससे सिर्फ एक वर्ग —
UPSC की तैयारी कर रहे कुछ लाख युवा — प्रभावित होता है।
जबकि बेरोजगारी, महंगाई, जातिगत समीकरण जैसे मुद्दों से करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं — और वहीं से वोट आते हैं।
इसलिए राजनीतिक दल इस मुद्दे पर या तो खामोश रहते हैं, या कभी-कभार ट्वीट कर के आगे बढ़ जाते हैं।
3. आम जनता से जुड़ाव की कमी – एक ‘क्लास स्पेसिफिक’ मुद्दा
यह मुद्दा आम जनता की रोज़मर्रा की चिंता में नहीं आता।
एक किसान, मजदूर, या छोटा दुकानदार —
शायद ही कभी इस मुद्दे पर बात करता है।
क्योंकि यह उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित नहीं करता।
UPSC की तैयारी एक ऐसा रास्ता है जिसमें ज्यादातर मध्यवर्गीय और पढ़ा-लिखा तबका आता है,
जो सोशल मीडिया पर सक्रिय तो है,
लेकिन राजनीतिक दबाव बनाने की हैसियत में नहीं है।
जब कोई आंदोलन समाज के बड़े हिस्से को छूता है, तभी वो राजनीति पर असर डालता है —
जैसे किसानों का आंदोलन या आरक्षण के मुद्दे।
लेकिन UPSC की आयु सीमा का मुद्दा एक “बौद्धिक बहस” बनकर ही रह जाता है —
जमीनी आंदोलन बन नहीं पाता।
राजनीतिक हल्कों में तर्क क्या होता है?
जब सरकार या कोई मंत्री UPSC आयु सीमा पर सवालों का सामना करते हैं, तो आमतौर पर जवाब होते हैं:
“देश को युवा नौकरशाह चाहिए, इसलिए उम्र सीमा जरूरी है।”
“अधिक उम्र में प्रशासनिक सेवा में आने वाले लोग लंबा सेवाकाल नहीं दे पाएंगे।”
“अगर उम्र सीमा बढ़ाई, तो परीक्षा का उद्देश्य ही बदल जाएगा।”
लेकिन इन तर्कों में आधुनिक यथार्थ, आर्थिक असमानता, और सामाजिक विविधता की बात नहीं होती।
इनमें ये स्वीकार नहीं किया जाता कि:
कई छात्र काम के साथ तैयारी करते हैं,
कुछ ग्रामीण इलाकों से आते हैं, जहां संसाधनों की कमी है,
और कुछ धीरे-धीरे मैच्योर होते हैं — लेकिन बेहद सक्षम होते हैं।
क्या कोई हल नहीं है?
बिलकुल है।
अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो UPSC के इस मुद्दे को बहुत ही व्यावहारिक और मानवीय तरीके से सुलझाया जा सकता है:
आर्थिक आधार पर आयु में छूट दी जाए — न कि सिर्फ जाति आधारित।
परीक्षा की प्रकृति में बदलाव कर के ऐसे स्केल लाए जाएं जो उम्र से ज्यादा अनुभव और समझ को तरजीह दें।
राज्यों को ज्यादा स्वतंत्रता मिले, ताकि वो अपने स्तर पर आयु सीमा तय कर सकें।
निष्कर्ष: बदलाव की गूंज राजनीति तक क्यों नहीं पहुंचती?
यह सवाल बहुत गहरा है — और यही वो जगह है जहां लोकतंत्र की असल परीक्षा होती है।
जब एक मुद्दा जिसमें लाखों युवाओं की मेहनत, सपने और भविष्य दांव पर लगा हो,
राजनीति के एजेंडे से बाहर हो जाए —
तो ये सोचने का समय है कि कहीं हमारी लोकतंत्र की दिशा गलत तो नहीं जा रही?
क्योंकि जो युवा आज UPSC की उम्र सीमा से बाहर हो रहा है,
वही कल डॉक्टर, वैज्ञानिक, इंजीनियर या सामाजिक कार्यकर्ता बन सकता है —
अगर उसे एक मौका और मिल जाए।
और जब कोई देश अपने युवाओं को मौका देना बंद कर देता है,
तो वो केवल आज नहीं, बल्कि अपने आने वाले कल को भी खो देता है।
8. क्या आने वाला वक्त यूपीएससी की आयु सीमा में बदलाव लाएगा? — उम्मीद की किरणें
असल में, बहुत से युवा, विशेषज्ञ और समाज के जागरूक वर्गों की तरफ से बदलाव की एक मजबूत उम्मीद भी बनी हुई है।
हर किसी की जुबान पर यही सवाल है — “क्या भविष्य में हमारी आवाज़ सुनी जाएगी?”
आइए जानें कि बदलाव की दिशा में कौन-कौन से कदम उठाए जा सकते हैं, और कैसे ये छोटे-छोटे कदम लाखों छात्रों की जिंदगी बदल सकते हैं।
1. EWS वर्ग के लिए छूट — एक अहम मांग
आज एक बड़ा विवादित मुद्दा बन चुका है।
UPSC की तयारी करने के लिए कई युवा इस वर्ग से आते हैं, जिनके पास महंगी कोचिंग या संसाधनों की कमी होती है।
आर्थिक तंगी के कारण उनकी तैयारी में देरी होती है, जिससे वे बार-बार कोशिश करते हैं और उम्र सीमा पार कर जाते हैं।
अब यह मांग जोर पकड़ रही है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और OBC के साथ-साथ EWS को भी आयु सीमा में छूट दी जाए।
यह बदलाव न सिर्फ समानता की भावना को मजबूत करेगा, बल्कि यह हजारों युवाओं के लिए एक नई उम्मीद भी बन जाएगा।
2. प्रयासों की सीमा बढ़ाना — परीक्षा की खुली छूट
यह सीमा भी कई युवाओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाती है।
UPSC इतनी कठिन है कि कई लोग 6-7 साल तक लगातार प्रयास करने के बाद ही सफलता प्राप्त करते हैं।
कोशिशों की यह सीमा हटाने या बढ़ाने से, युवा बिना तनाव के अपनी पूरी क्षमता दिखा पाएंगे।
इस बदलाव से उम्मीदवारों को ज्यादा मानसिक राहत मिलेगी और वे अपनी तैयारी पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर पाएंगे।
3. ऑनलाइन और किफायती संसाधन — तैयारी की पहुंच बढ़ाना
महंगी कोचिंग कई परिवारों के लिए सपने जैसा होता है।
अगर सरकार या UPSC जैसी संस्थाएं किफायती और गुणवत्तापूर्ण ऑनलाइन सामग्री मुहैया कराएं, तो
गरीब और दूरदराज के छात्र भी आसानी से तैयारी कर सकेंगे।
यह संसाधन ऐसे हों, जो समय और स्थान की पाबंदी से मुक्त हों, ताकि हर कोई अपनी गति से पढ़ सके।
इससे तैयारी की गुणवत्ता बेहतर होगी और आयु सीमा की समस्या अपने आप कम हो जाएगी।
4. परीक्षा प्रक्रिया को पारदर्शी और आसान बनाना
परीक्षा के नियमों में ज्यादा पारदर्शिता और सहजता लाने की जरूरत है।
परीक्षा के बारे में पूरी जानकारी साफ-साफ और समय पर दी जाए।
आवेदन प्रक्रिया सरल हो, ताकि किसी भी तरह की तकनीकी या प्रशासनिक दिक्कत न आए।
रिजल्ट और मेरिट लिस्ट की प्रक्रिया को तेजी से और स्पष्ट रूप से सार्वजनिक किया जाए।
जब परीक्षा की प्रक्रिया सरल और पारदर्शी होगी, तब ज्यादा युवा इसमें भरोसे के साथ भाग लेंगे और आयु सीमा की चुनौतियां कम महसूस होंगी।
बदलाव की आशा है, पर उसे सच करने की ज़िम्मेदारी हम सभी की
यह संपूर्ण समाज की जिम्मेदारी है —
युवाओं की आवाज़ को सुनना, उनका समर्थन करना, और साथ मिलकर बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाना।
सोशल मीडिया पर चर्चा हो, युवा संगठनों के आंदोलन हों, और जो लोग इस मुद्दे को समझते हैं वे आवाज़ उठाएं —
तब जाकर यह उम्मीद बन सकती है कि आने वाले वक्त में यूपीएससी की आयु सीमा सचमुच बदल पाएगी।
9. अंत में — यूपीएससी की आयु सीमा की कहानी और हमारी उम्मीदें
इसमें छुपी है हमारी समाज की वो असमानताएं, जो कई युवाओं के सपनों पर रोक लगा देती हैं।
सोचिए, एक ऐसा युवा जो बहुत मेहनत करता है, पढ़ाई करता है,
लेकिन घर की आर्थिक या पारिवारिक मजबूरियों की वजह से वक्त पर तैयारी नहीं कर पाता।
ऐसे कई लाखों युवा हैं, जो बस अपने देश की सेवा करना चाहते हैं,
लेकिन ये उम्र की सीमा उनके रास्ते में बड़ी बाधा बन जाती है।
सरकार को इस बात को समझना होगा कि ये कोई मामूली सवाल नहीं है।
ये उन युवाओं के जीवन का सवाल है, जिनकी उम्मीदें और सपने इससे जुड़े हैं।
उन्हें मौका देना जरूरी है, ताकि हर कोई बिना किसी भेदभाव के अपने लक्ष्य तक पहुंच सके।